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Title :भारतीय चिकित्सा विज्ञान
Blogger :धीरेन्द्र कुमार [ उत्तिष्ठ भारतः]
SUbject :रोग "चेचक" या माता "शीतला"
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भारतवर्ष की ऐसी असंख्य परम्पराएं हैं जिन्हें समझना अत्यंत दुष्कर है. विशेषकर प्राचीन/धार्मिक परम्पराएं तो बहुत ही गूढ़ और रहस्यमय हैं. इन्हें समझा जा सकता है, पर उसके लिए पहले भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति को अच्छे से समझना ज़रूरी है.पश्चिम के वैज्ञानिक चश्मे से इन्हे समझना संभव नहीं है,[ ठीक उसी तरह जैसे किसी तापमापी से चुम्बक की शक्ति को मापा नहीं जा सकता ] अन्यथा पश्चिम के और उसी प्रणाली से पढ़े लिखे विद्वान भारतीय वैज्ञानिक इन पहेलियों को न जाने कब का सुलझा चुके होते. इस कार्य केलिए सबसे पहले तो इस पूर्वधारणा को मिटाना पड़ेगा की आज का विज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है और शेष सभी अर्थात चीन, मिश्र, दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और भारतवर्ष का प्राचीन विज्ञानं कुछ भी नहीं. आईये एक उदहारण देखते हैं:
एक रोग था चेचक, जो लगभग १२००० हज़ार वर्षों से मानव जाति के लिए संकट उत्पन्न कर रहा था ,[ सन १९८० से विश्व से इसका सफाया हो चूका है .विश्व का अंतिम प्रकरण सन १९७७ में सोमालिया के अली माओ मओलिन तथा भारतवर्ष में सन १९७५ के साईं बेन बीबी के रूप में दर्ज है ] भारतवर्ष में इसके अनेक नाम हैं जिनमें सबसे अधिक प्रचलन में " माता " या " शीतला माता " है. यह एक संक्रामक और पीड़ादायी रोग है. इस रोग में पूरे शरीर पर छोटे या बड़े चकत्ते हो जाते हैं ,तेज़ बुखार और कमज़ोरी इसके लक्षण हैं.. प्रायः रोगी को यह २१ दिनों तक कष्ट पहुंचाता था. रोग होने पर रोगी को सबसे अलग रखा जाता था.उसके चारों ओर नीम के पत्ते बिछा दिए जाते थे. रोगी के पास कम से कम लोगों को जाने दिया जाता था, परन्तु घर में पले जानवर जा सकते थे. रोज़ नियम से देवी पूजा की जाती थी २१ दिनों तक और रोग ठीक हो जाने के बाद पूरे घर की सफाई आदि अति आवश्यक थी. इन पूरे २१ दिनों में घर में पूरी पवित्रता बरती जाती थी. खान पान पूरे नियम से होता था. तात्पर्य यह की सभी कुछ सावधानी से होता था.धार्मिक कार्यकलाप हमेशा नियम से ही किये जाते हैं. एक विलक्षण बात यह होती थी की इन दिनों में घर में ऐसा कोई भी भोजन या खाद्य सामग्री नहीं बनती थी जो तली या छौंकी गयी हो. तेल या घी पूरी तरह से वर्जित होता था और चूल्हे पर कढ़ाई नहीं चढ़ाई जाती थी. यहां यह बात ध्यान देने योग्य है की यह सब एक अन्य रोग "खसरा" के लिए नहीं किया जाता था जबकि खसरा के लक्षण भी लगभग ऐसे ही थे. ऐसा केवल "बड़ी माता और छोटी माता" के प्रकरणों में ही किया जाता था.चेचक का कारक कीटाणु वैरियोला वायरस है जो दो प्रकार का होता है. यह रोग प्रायः छींक, खांसी से फैलता था.
भारतवर्ष में जन्मा आयुर्वेद, निश्चित रूप से विश्व की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धिति है जिसके प्रणेता ऋषि चरक हैं. जिसका उपयोग इस रोग को फैलने से रोकने में किया जाता था [यहाँ हमें यह ध्यान में रखना होगा की आयुर्वेद सहस्त्रों वर्ष पुराना है और इसमें उच्च कोटि की शल्य चिकित्सा के साथ साथ प्राकृतिक चिकित्सा का भरपूर उपयोग किया गया है]. उस समय विभिन्न प्रकार की योग शिक्षा द्वारा शरीर को स्वस्थ रखा जाता था. उस समय के वैज्ञानिकों और चिकित्सकों को हम आज ऋषी,मुनि,आचार्य आदि विशेषणों से पहचान सकते हैं.ये ग्यानी जानते थे की " खसरा " और " चेचक " अलग अलग रोग हैं अतः उनकी चिकित्सा भी अलग अलग तरह से होगी. इतना ही नहीं, वे यह भी जानते थे की " छोटी माता " और " बड़ी माता " भी इस रोग के दो प्रकार हैं. वे लोग नीम के औषधीय गुणों से भी परिचित थे. परन्तु, प्रश्न यह उठता है की इन विद्वानो द्वारा रसोईं में" छौंक-बघार " पर प्रतिबन्ध क्यों लगाया था ? किसी रोग का "भोजन-विधि" से क्या सम्बन्ध हो सकता है ? वह भी उस रोगी से दूर, दूसरे कक्ष में ? पशुओं को क्यों नहीं रोका जाता था ? आईये देखते हैं :
हम लोगों का अनुभव है की जब भी सब्ज़ी, दाल, आदि में छौंक-बघार की जाती है तो आसपास के कई घरों तक उस भोजन की सुगंध जाती है अर्थात उस भोजन के अति सूक्ष्म कण हवा में तैर कर दूर दूर तक फैल जाते हैं जिनकी सुगंध हमें अनुभव होती है . चेचक के कीटाणुओं [वैरियोला] की यह विशेषता होती है की वे कार्बनिक पदार्थों से चिपकते हैं. अर्थात ये कीटाणुं उन भोजन-कणों में चिपककर उन को वाहन की तरह उपयोग में लाते हैं और आसपास के वातावरण में फैल जाते हैं और संक्रमण पैदा करते हैं . इस फैलाओ को यदि नहीं रोका जाए तो चेचक के कीटाणुं सभी स्थानों पर फैल जाएंगे और माध्यम बनेंगे वे भोजन-कण जिनपर वे चिपके हैं.. उस समय भोजन का कार्य महिलाओं के ही हाथ में रहता था और वे सभी धर्मपरायण भी होतीं थीं अतः विद्वानो नें इस रोग की चिकित्सा/रोकथाम के लिए धार्मिक आस्था का सहारा लिया. उन्होंने यह शिक्षा दी की यह रोग एक "देवी माता" हैं और घर में छौंक-बघार करने से ये कुपित होती हैं. इसीलिए माता के क्रोध से बचना है तो २१ दिनों तक छौंक - बघार बंद करना चाहिए. उस काल में ऋषिओं / ब्राह्मणों की हर बात मानी जाती थी अतः सभी महिलाएं बिना किसी तर्क-वितर्क-कुतर्क के आज्ञां का पालन करतीं थीं,. परिणाम यह होता था की चेचक के फैलने पर रोक लग जाती थी. यह रोग पशुओं पर असर नहीं करता ऐसा बाद में आधुनिक विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया [ आश्चर्य की बात ये है की आज तक इस रोग का पूर्ण उपचार नहीं खोज जा सका . वैक्सीन के माध्यम से टायलेनॉल दिया जाता है पर उससे भी पूर्ण आराम नहीं होता. परन्तु आधुनिक विज्ञान इसे पूर्णतः समाप्त कर दिया जिसके लिए सभी वैज्ञानिक/चिकित्सक धन्यवाद के पात्र हैं.]
भारतवर्ष की उपरोक्त परम्परा पर ध्यान दें तो यह प्रकरण क्या यह सिद्ध नहीं करता की भारतवर्ष में ज्ञान-विज्ञान की कोई कमी नहीं थी अपितु आज से भी अधिक जानकारियां थीं. परन्तु वे लोग प्रकृति को पूज्य मानते थे और उसे बचाते भी थे .आज का पश्चिमी विज्ञान कई क्षेत्त्रों में आगे है और सुविधाएं भी दे रहा है, पर किस कीमत पर ? आज प्रकृति का विनाश हो रहा है और उसका बहुत बड़ा कारण है विज्ञान के वे परीक्षण जिनकी कोई आवश्यकता ही नहीं है. प्राचीन विज्ञान हमें सिखाता है अपनी अंतर्शक्ति को सम्हालना, सुरक्षित रखना और सदुपयोग में लाना जबकि आधुनिक विज्ञान हमें बाहरी विषयों की ओर खींचता है, बाहर के तत्वों पर निर्भर बनाता है. इसका अंत क्या होगा ? अब एक नया संकट सामने है .वो यह की अमेरिका और रूस के पास इस रोग के कीटाणुओं के जो नमूने रखे हैं उनका दुरूपयोग किसी जैविक युद्ध में किया जा सकता है या आतंकवादी संगठन भी इसका दुरूपयोग कर सकते हैं.