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Title :सनातन संस्कृति
Blogger :धीरेंद्र गौड़
SUbject :दीपावली
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आज सृष्टि संवत् 1,96,08,53,116 के माह कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अमावस्या है अत: "दीपावली" है। इसका अपभ्रंश है" दीवाली ", जैसे "काव्यावली" का "कव्वाली"। आज के दिन श्री रामचंद्र अपनी धर्मपत्नी सीता के साथ 14 वर्ष वनवास के पश्चात वापस अपने घर अयोध्या(साकेत) लौटे थे। चूँकि वे अपने चरित्र और कर्मों के कारण अति लोकप्रिय थे, इसलिए अयोध्या के वासियों ने जलसे आयोजित करके अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी। वही परम्परा आज भी चला रही है।
श्री राम अपनी धर्मपत्नी, माता सीता के साथ आए थे। माता सीता लक्ष्मी हैं अत: उनका स्वागत किया जाता है। आज भी सनातन संस्कृति में घर की वधू ही स्वागत योग्य है ( विवाहोपरांत reception भी बहू का ही होता है)। इसीलिए आज लक्ष्मी पूजा का विधान है सनातन संस्कृति में।
परंतु, क्या माता लक्ष्मी की कृपा सच में हो पाती है? यदि नहीं, तो क्यों नहीं? इसके दो तो स्पष्ट कारण हैं ।
1/ क्या हम याचना करने योग्य हैं ? क्या हम माता का स्वागत करने के योग्य चरित्रवान हैं ? अँग्रेजी में एक कहावत है " First deserve then desire " माता जानतीं हैं कि उनके द्वारा दान किए गए धन का कितना दुरुपयोग किया जाने वाला है, संभवतः इसीलिए हाथ खींच लेती हैं।
2/ माता लक्ष्मी केवल मर्यादा पुरुषोत्तम के पास ही स्थायी निवासी करतीं हैं। कितने पुरुष इसके कसौटी पर खरे उतरते हैं ? माता लक्ष्मी का स्थायी निवास चाहते हैं तो मर्यादित होना पड़ेगा।
अत: केवल मिठाइयाँ बाँटने, दीप प्रज्वलित करने और पटाखे फोड़ने से कुछ बदलने वाला नहीं है। अपने चरित्र और कर्मों में धनात्मक परिवर्तन लाने से ही सही अर्थों में दीपावली मनेगी। इसी को शुद्धता कहते हैं। इस भावना के अभाव में यह सब केवल और केवल प्रदूषण मात्र है।