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Title :सनातन सत्य - 4
Blogger :धीरेन्द्र कुमार गौड़
SUbject :सनातन सत्य
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अनादि काल से, प्राणिमात्र में मित्रवत् और शत्रुवत् भाव प्रसिद्ध रहे हैं। प्राणियों, विशेष रूप से मानव के इस आचरण को उसके चरित्र का एक अवयव भी माना गया है।
मित्रता को "हित" अर्थात "धनात्मक " और शत्रुता को "अहित" अर्थात "ऋणात्मक" भाव की संज्ञा दी गई है। यह भी कहा जाता है कि: 1/ अपने मित्र का मित्र, अपना मित्र होता है।
2/ अपने मित्र का शत्रु , अपना शत्रु होता है।
3/ अपने शत्रु का मित्र , अपना शत्रु होता है।
4/ अपने शत्रु का शत्रु ,अपना मित्र होता है।
आइये, विज्ञान और तर्क के इस युग में हम उपरोक्त सूत्रों को भी परखें :-
मान लेते हैं कि "मित्र" = (+)(धनात्मक )
"शत्रु" = ( - )(ऋणात्मक )
गणित के प्रचलित और प्रसिद्ध सूत्रों द्वारा :-
मित्र का मित्र, :(+) का (+) = (+)(मित्र)
मित्र का शत्रु, :(+) का (-) = (-) (शत्रु )
शत्रु का मित्र, : (-) का (+) = (-) (शत्रु )
शत्रु का शत्रु, : (-) का (-) = (+) (मित्र )
हम जानते हैं कि "का" का अर्थ "×" होता है:
अर्थात : (+) × (+) = (+)
(+) × (-) = (-)
(-) × (+) = (-)
(-) × (-) = (+)
लीजिए मित्रों, हो गया न सिद्ध !!!
गणित भी चमत्कारी है, है न ?